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एक संस्कृति को बचाने ठोस पहल की जरूरत

  छत्तीसगढ़ । असल बात न्यूज। 0  अशोक त्रिपाठी 0  संस्कृति/विरासत/परंपराएं नगाड़ों की थाप कहीं गूंजती सुनाई नहीं दे रही है। लगभग महीने भर पहल...

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 छत्तीसगढ़ । असल बात न्यूज।

0  अशोक त्रिपाठी

0  संस्कृति/विरासत/परंपराएं

नगाड़ों की थाप कहीं गूंजती सुनाई नहीं दे रही है। लगभग महीने भर पहले से बजने शुरू हो जाने वाले उन नगाड़ों की थापों की गूंज जिनसे हमे एहसास हो जाता था कि रंगों का त्योहार, गुजिया पापड़ और बेसन के लड्डू ओ का त्यौहार होली का अब आगमन होने वाला है, हमारी संस्कृति हमारे उत्सव के परिचायक उन नगाड़ों की गूंज सुनाई नहीं दे रही है। जिन नगाड़ों की थाप  सुनकर मन खिल उठता था, शरीर के रोम रोम में नए उत्साह,उमंग का संचार होने लगता था, वे नगाड़े बजते अब सुनाई नहीं दे रहे हैं। हमारे आंखों के सामने हमारे एक महान संस्कृति हमारी महान परंपरा विलुप्त होने के कगार पर बढ़ रही है।हमारे आधुनिक पन की सनक ने इसे नुकसान पहुंचाया है। तो वही लगातार बढ़ती जा रही महंगाई भी इसे हर कदम पर नुकसान पहुंचाने में आगे लगी रही है। 

फागुन की शुरुआत होने लगी हो और नगाड़ों की थाप सुनाई देनी शुरू ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता। जिस तरह से बसंत के आगमन के साथ आमों में बौर लगने शुरू हो जाते हैं, पतझड़ से तमाम हरे-भरे पौधों की पत्तियां स्वयं विलीन होकर नई पत्तियों को जन्म लेने का अवसर प्रदान करती हैं, पलाश के पौधों के सुर्ख लाल फूल दमक ने लगते है। वैसे ही गांव गांव, गली गली में नगाड़ों की थाप गुजने लगती है । असल में यह अवसर भी होता है नई खुशियों को मनाने का, त्यौहार मनाने का। खेतों में गेहूं की फसल कट कर घर पहुंच गई होती है। चना, गन्ने सरसों, पालक टमाटर जैसी सब्जियों से घर आंगन पहले ही महक रहे है होते हैं। लगातार काम के बाद मन शरीर को आराम देने के लिए प्रवृ त रहता है। तब यह उत्सव खुशियां, उत्सव क्यों ना मनाया जाए। संभवतः ऐसी ही खुशियों के वातावरण के बीच प्राचीन काल में नगाड़े बजाकर त्योहार मनाने, मौजमस्ती करने , शरीर को विश्राम देने तथा खुशियां मनाने की परंपराओं की शुरुआत हुई। हल्की ठंड और हल्की गर्मी के बीच फागुन के महीना का सुखद वातावरण, सच में हमारे लिए नई खुशियां बिखेरता नजर आता है। बताया जाता है कि एक गांव में नगाड़े बजने शुरू होते थे तो पड़ोस गांव में नाबार्ड की और तेज गूंज सुनाई देती थी। धीरे-धीरे एक-एक कर हर गांव से नगाड़ों की गूंज चारों तरफ फैलने लगती थी है। तब किसके नगाड़ों की गूंज कितनी दूर तक पहुंच रही होती है, इस पर एक अघोषित योगिता भी शुरू हो जाते थे। और सिर्फ नगाड़ों की गूंज सुनकर ही गांव के गांव इस घोषित प्रतियोगिता में प्रतिस्पर्धा में शामिल हो जाते थे। इस पर कोई पुरस्कार नहीं मिलता था, लेकिन जो आनंद था, जो खुशियां होती थी, जो अपनापन होता था,जो एक संदेश फैलाने की कोशिश होती थी कि हम भी हैं हम भी कमजोर नहीं हैं, उससे इन नगाड़ों की गूंज में  मिट्टी की सौंधी महक भी महसूस होती थी।  उन नगाड़ों की मीठी गूंज, तेज स्वर सुनाई नहीं दे रहे है। यह मामूली बात नहीं है। यह अपनी संस्कृति, परंपरा ओ के खो जाने वाली बात है।हम आगे बढ़ते जाते हैं लेकिन जो पीछे छूट रहा है उसे भी देखना, सहेजना जरूरी है।

छत्तीसगढ़ में सरकारी तौर पर अपनी संस्कृति परंपराओं को बचाने सहज निर्णय काम शुरू किए जा रहे हैं और ढेर सारे काम शुरू कर दिए गए हैं। ऐसे में यह उम्मीद बढ़ी है कि हमारी नगाड़ा संस्कृति भी बचाई जा सकेगी, सहेजी जा सकेगी। कहा जाता है कि जब मुगलों ने आक्रमण किया, अंग्रेजों ने देश को गुलाम बनाया तो उन लोगों ने सबसे अधिक हमारी संस्कृति और परंपराओं को ही सबसे अधिक  नुकसान पहुंचाने, कुचलने का काम किया।इसके चलते हमारी तमाम संस्कृति , परंपराएं विलुप्त हो गई। जो हमारे सामाजिकता थी, सामाजिक भावनाये थी, उसको तमाम कुचक्रो से तोड़ा गया। हम भी तथाकथित आधुनिक बनने के फिराक में ऐसे कुचक्र, साजिशों को सहयोग करते चले आए।

नगाड़ों की गूंज हमें आगे बढ़ते रहने का संदेश देती है। हमें सचेत रहने का संदेश देती है। हमें राष्ट्र को बनाने के लिए एकजुट होने, जागृत रहने, सब ठीक है ना का संदेश देती है।।हमसे तमाम कुचक्रों , साजिशों को तोड़ने का आह्वान करती है। हमसे अपनी संस्कृति परंपराओं को जीवंत बनाए रखने को कहती है। ऐसे नगाड़ों की गूंज विलुप्त हो रही है। अब अवसर हमारे  हाथ में है कि हम अपनी संस्कृति परंपराओं को कैसे बचा सकते हैं। उन्हें कैसे जीवित, सुरक्षित रख सकते हैं ? अभी छत्तीसगढ़ सरकार से नई उम्मीदें हैं।तमाम संस्कृतियों परंपरा ओ को यहां बचाने की  कोशिश हुई है जिसकी प्रत्येक वर्ग ने तालियां बजाकर सराहना की है तो लग रहा है कि हमारी नगाड़ा संस्कृति को बचाने भी कदम जरूर उठेंगे। इस और सकारात्मक निर्णय जरूर लिए जाएंगे।

इस साल नगाड़ा बेचने वालों की हालत अत्यंत दयनीय है। शहरों में धारा 144 लागू होने तथा 5  से अधिक लोगों के एक साथ एकत्रित नहीं होने का निर्देश जारी होने के चलते बड़े नगाड़ों को कोई खरीद नहीं रहा है। ये नगाड़े बड़ी मेहनत से बनाये जाते हैं तथा इन्हें बनाने में बड़ा खर्च हो जाता है। इस साल तो इसकी लागत का पैसा वसूल होना भी मुश्किल दिख रहा है। दुर्ग जिले में हनौद मैं बड़े पैमाने पर नगाड़ा बनाया जाता है।इसके लिए ज्यादातर लोग हांडी डोंगरगढ़ से खरीद कर लाते हैं। ये हांडी ही ₹500 प्रति जोड़ी मिलती है।बने हुए नगाड़ों को सहेज कर रखना बहुत मुश्किल काम होता है क्योंकि इसे चूहे के कुतरे जाने से  नुकसान पहुंचने का खतरा हमेशा बना रहता है। खैरागढ़ के नगाड़े भी बहुत फेमस है।






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