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थक गई कविता

  हे दुनिया, तेरी इन थकी हुई अंधेरी रातों का कब  भोर होगा सब भागते थे, चलते थे, थकते थे, थकान में भी था आराम, कुछ पल की सुकून दिला जाती थी र...

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 हे दुनिया, तेरी इन थकी हुई अंधेरी रातों का कब  भोर होगा

सब भागते थे, चलते थे, थकते थे, थकान में भी था आराम, कुछ पल की सुकून दिला जाती थी रात

सो गई है खुशियां सारी, गुम हो गया है सारा चल पल

खेत भी सुने हैं, नदियों तालाबों पर  अकुलाहट पसरा है, मेहनत करने वाले आराम से सोए हैं, सब तरफ, सब कुछ बंद जो है

सारे पहिए जाम हैं, आराम ने सीने पर पटक दिया है सारा बोझ, आंखें झांक रही है कब निकलेगा सुनहरा सूरज

हर पल अब बस ऐसी ही कहीं से खबर आती है, छोड़ कर चल दिए अपने लोग

चले जा रहे हैं लोग, वापस नहीं आने के लिए, बेबस लाचार हैं सब, रुकता नहीं है जो सब हो जा रहा है

सोच, समझ नहीं सका था कोई, ऐसा भी पल आएगा, इंसान यूं ही पत्तों की तरह बिखर जाएगा

अनमना मन, खुद का तो कुछ था नहीं

पीछे छूट गई है बस सिसकियां, चित्कार, ना रुकने  वाले दर्द भरे आंसू

उनका दर्द कौन, कैसे समझ सकेगा, जिनके अपने वे चले गए जो घर सारी खुशियां लाते थे

पत्ते नहीं है मुरझाए, बस, हरियाली नहीं बिखर रही है उनसे।  

 फूल भी अपनी सुंदरता पर नहीं इतराते हैं। स्थिर, जड़ हो गई है उनकी मुस्कुराहट  भी                                  लग रहा है कोई कालिमा छीन ले गई है उनकी महक।                                आसमान, अपनी चमक बिखेरने की खूब कोशिशों में लगा है।  

चिताओं से उठते खूब सारे काले धुएं,उसकी हर चमक को बदरंग बना देना चाहते हैं

दूर कोने से आती   बंदूकों की धाएं-धाएं

उजाड़ दे रहे किसी का सुहाग, मिटा दे रहे किसी के माथे का सिंदूर, छीन ले रहे किसी का बेटा, किसी का भाई

हवाओं को परवाह नहीं है

उन्हें चिंता क्यों होगी

हवाये अपनी मस्ती में, अपने  रास्ते में बह रही हैं

खून के धब्बे, लोगों की जाने, मातम और चीख चिल्लाहट, हवा सबको बिसराते  चले जा रही है  

अब सब कुछ आंखों में बदल गया है,नए आंकड़े अब कुछ लिखने को नहीं कहते, रोज वही, रोज वही, टूट गई जिंदगी

मालूम है वही, वही और वही बात है

उनके आंसू गालों तक लुढ़क आए हैं, दर्द कितने उसके पीछे हैं , कौन गिन सकेगा

कितनी जाने चली गई है  उसके पीछे कि, भयानक खाके को बेपरवाह क्रूर सितम झांकने भी नहीं देता

किसने फैला दिया है ये जहर, खुले में सांस लेना भी मुश्किल है

हे दुनिया, तेरी इन थकी हुई अंधेरी रातों का कब होगा भोर

कब फैलेगा उजियारा, हवाओं में घुला जहर यूं कब खत्म होगा

हे दुनिया, तेरी इन थकी हुई अंधेरी रातों का कब  भोर होगा ।।


                   0  अशोक त्रिपाठी