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भारतीय स्वाधीनता संग्राम में छत्तीसगढ़ का योगदान,जनजातीय संघर्ष

                                                                                     सामान्य तौर पर भारत में अंग्रेजी सत्ता के दो कालखंड र...

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  सामान्य तौर पर भारत में अंग्रेजी सत्ता के दो कालखंड रहे, पहले ईस्ट इंडिया कंपनी, जिसका शासन 1765  से 1858 तक रहा और फिर ब्रिटिश सरकार 1858 से 1947 तक, जिसमें ब्रिटिश संसद के माध्यम से वहां की सरकार महाराजा या महारानी के नाम से शासन करती थी । इन दोनों कालखण्डों में भारतीय अपने स्वाधीनता के लिए निरंतर संघर्ष करते रहे और दोनों ही काल में छत्तीसगढ़ के  रजवाड़ों या समाज के वीर योद्धाओं ने अपना योगदान दिया है । संघर्ष का चरित्र छत्तीसगढ़ के दो क्षेत्रों, जनजातीय व गैर जनजातीय, में  भिन्‍न हैं । छत्तीसगढ़ में कंपनी ने यहां का प्रशासन भले ही 1818 को अपने हाथ में लिया, किन्तु उसके पहले ही अंग्रेजों के विरूद्ध यहां का जनजातीय समाज अपनी स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखने सशस्त्र संघर्ष प्रारंभ कर चुके थे। यह अनवरत चलता रहा ।


  पहले चरण में वन क्षेत्रों में संघर्ष प्रारंभ हुआ, जब बंगाल को जीतकर कंपनी ने क्षेत्र का विस्तार करना चाहा तो बस्तर में हलबा जनजाति से सशस्त्र संघर्ष हुआ, इसमें अंग्रेजों ने बर्बरता से सैकड़ों हलबा वनवासियों की हत्या कर दी । छत्तीसगढ़ क्षेत्र में अंग्रेजी काल में 14 प्रमुख सशस्त्र संघर्ष विभिन्न जनजातियों ने किए, इनमें से कुछ तो रियासतों के कुशासन के कारण था किंतु अनेक संघर्ष वन संस्कृति पर अंग्रेजी हस्तक्षेप से उपजा था । 1857 तक ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध एक वातावरण बन चुका था, छत्तीसगढ़ इससे अछूता नहीं था । 1856 से 1860 के बीच कई सशस्त्र संघर्ष हुआ, इसमें बस्तर के धुर्वा राव का विद्रोह हो या सोनाखान में बिंझवार जनजाति के जमींदार नारायण सिंह हो । दोनों गिरफ्तार कर लिए गए और अंततः फांसी पर लटका दिए गए। 1857 में जब राजे- रजवाड़े कंपनी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्षरत थे, सरगुजा में भी स्थानीय कोल जनजातियों की मदद से रीवा राज्य के नेतृत्व में एक विद्रोह हुआ था । भोज और भगत के नेतृत्व में समूचे सरगुजा में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ा गया था । यहीं पर उदयपुर में राजा के भाई ने विद्रोह का नेतृत्व किया जिसे कालापानी की सजा मिली।


  1857 के प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष के फलस्वरूप सारंगढ़ रियासत में कमल सिंह के नेतृत्व में बगावत हुई, जिसे बड़ी निर्ममता से कुचला गया, कमलसिंह को फांसी दे दी गई। रायपुर में अंग्रेजी सेना का मैगजीन लश्कर हनुमान सिंह ने 18 जनवरी को अपने अधिकारी सार्जेंट मेजर सिडवेल की हत्या का दी। यह घटना एकाएक नहीं हुई, इस दौर में अंग्रेज जिस प्रकार विद्रोह को कुचलने क्रूरता दिखा रहे थे, उसे एक देशभक्त सहन नहीं सका। सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह अकाल से जनता की पीड़ा से व्यथित थे। जब व्यापारियों, अंग्रेजी सत्ता से कोई मदद नहीं मिली तब उन्होंने व्यापारियों के अनाज गोदामों को लूटकर गरीब लोगों में बंटवा दिया । इससे अंग्रेजों से उनकी ठन गई। संक्षिप्त संघर्ष के बाद वे गिरफ्तार कर लिए गए । 1857 के संग्राम का समाचार मिला तो वे जेल से भागकर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। वे फिर से पकड़े गए और  सार्वजनिक नौर पर 10 दिसंबर 1958 को रायपुर जेल में वीर नारायणसिंह को फांसी दी गई थी, हनुमान सिंह का निर्णय इस घटना से दुःखी थे । हनुमान सिंह के 17 साथियों को फांसी पर लटकाया गया । इस प्रकार 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में छत्तीसगढ़ के जनजातीय समाज की महत्वपूर्ण भूमिका है ।


  1858 में कंपनी शासन समाप्त हुआ और ब्रिटिश सरकार ने भारत की सत्ता अपने हाथों में ले ली, इसके बाद भी छत्तीसगढ़ के वन क्षेत्रो में अंग्रेजी के खिलाफ विरोध और विद्रोह नहीं थमे । अब ब्रिटिश सरकार की वन नीतियों, ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों से जनजातीय संस्कृति पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के कारण विद्रोह हुए । दक्षिण बस्तर में वनवासियों के लिए साल वृक्ष एक आस्था का प्रतीक है । अंग्रेजी हुकूमत ने बस्तर में पेड़ कटाई करने का काम ठेकेदारों को सौंपा था, उन्होंने सागौन पेड़ को कटने के साथ साल के पेड़ों पर भी आरी चलाना शुरू कर दिया । 1859 में इससे वहां निवासरत दोरला और दंडामी माडिया जनजातियों ने विरोध करने का निर्णय लिया । इससे हैदराबाद के ब्रिटिश ठेकेदार घबरा गए, उन्होंने जब अंग्रेज अधिकारियों को वनवासियों का निर्णय बताया तो अंग्रेजों ने इसे अपनी प्रभुसत्ता को चुनौती मानते हुए एक सैनिक सशस्त्र टुकड़ी भेज दी । इससे भड़के जनजातीय हाथों में मशाल लेकर लकड़ी के तालों को आग के हवाले कर दिया ।  वनवासियों ने नारा दिया था, ' एक साल वृक्ष के लिए एक सर '  इस नारे का इतना व्यापक असर हुआ कि हैदराबाद के निजाम को पेड़ों को काटने का निर्णय वापस लेना पड़ा । यह परतंत्र भारत का वन बचाओ, चिपको आंदोलन था । 


  बस्तर के राजमुरिया लोगों के बीच सरकार के खिलाफ असंतोष की एक घटना 1876 ई. में घटित हुई थी। यह् घटना बताती है कि वनवासी समुदायों में अंग्रेजों को लेकर कितना आक्रोश था। 28 फरवरी 1876 को बस्तर के राजा भैरमदेव वेल्स के युवराज से भेंट के प्रयोजन से जगदलपुर से रवाना हुए ।  मारेंगा नामक स्थान पर राजा की पालकी ढोने वाले भारवाहकों और कहारों ने सिर कधों से बोझ उतार कर आगे बढ़ने से इंकार कर दिया । क्योंकि राजा अंग्रेजी राजकुमार से मिलने क्यों जा रहे हैं? इसके लिए  उन्हें गिरफ्तार कर जगदलपुर जेल में बंद करने ले जा थे । लेकिन इसके पूर्व ही क्रुद्ध आदिवासी किसानों की टोली ने घात लगाकर गारद के कब्जे से बंदियों को छुड़ा लिया और गारद को खदेड़ दिया । आखिरकार राजा को उल्टे पांव लौटना पड़ा । यह असंतोष अंग्रेजी नीतियों, दमन और शोषण के कारण था।


  बस्तर में एक और विरोध हुआ, यह बस्तर की सामाजिक परंपरा पर हस्तक्षेप करने के कारण हुआ । 18780 में राजा भैरमदेव ने ब्रिटिश सरकार के आदेश पर मुस्लिम महिला नवा बाई से विवाह किया जो  सामाजिक परंपरा के विरुद्ध था । राजा की पटरानी जुगराज कुंवर देवी ने इस विवाह का विरोध किया जिसमें बस्तर की महिलाओं ने बड़ी संख्या में रानी का साथ दिया । अंग्रेजों ने इसे रानी का विद्रोह माना था और नाम दिया रानी चो रिस। आखिरकार राजा को झुकना पड़ा ।  अंग्रेजों के खिलाफ अंतिम सशस्त्र संघर्ष 1910 में भूमकाल के नाम से हुआ, इस विरोध के अनेक कारण थे, जिसमें ईसाई मिशनरियों का धर्मांतरण भी एक कारण था । लाल कालेंद सिंह, रानी सुवरन कुंवर और गुण्डाधुर ने इस संघर्ष का नेतृत्व किया ।  फरवरी 1910 में सरकारी दफ्तरों को आग लगा दी गई, लूटमार की गई । अंग्रेजों ने कठोरता से इस विद्रोह को कुचलने का प्रयास किया। बड़ी संख्या में जनजातीय पुलिस गोली के शिकार हुए, सभी महत्वपूर्ण नेता गिरफ्तार हुए, उन्हें देश निकाला दे दिया ।


  इस प्रकार स्वाधीनता संघर्ष में छत्तीसगढ़ के के योगदान में जनजातीय समाज हमेशा अग्रणी रहा। तीर कमान लेकर अंग्रेजों की स्वचालित आधुनिक अस्त्र शस्त्र से मुकाबला करने का साहस उनमें अद्भुत था। उन्होंने अंग्रेजी सत्ता और उनके अधीनस्थ राजाओं, जमींदारों की दमनकारी नीतियों के खिलाफ मुखर रहे । कहा जा सकता है की पूरे भारत में अंग्रेजों ने अपने मन मुताबिक शासन चलाया लेकिन वे जनजातीय क्षेत्रों में असहाय रहे । यही कारण था कि अनेक जनजातीय समुदायों को उन्होंने अपराधी जाति घोषित कर दिया। भारत के अमृत महोत्सव के सुअवसर पर ऐसे वीरों को बारंबार नमन ।


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