छत्तीसगढ़ में आरक्षण को बहाल करने के लिए नया कानून बनाने की राह आसान नहीं दिख रही है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की अध्यक्षता में सोमवार को हुई...
छत्तीसगढ़ में आरक्षण को बहाल करने के लिए नया कानून बनाने की राह आसान नहीं दिख रही है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की अध्यक्षता में सोमवार को हुई राज्य कैबिनेट की बैठक में आरक्षण पर नया कानून लाने की संभावनाओं पर चर्चा हुई है। अफसरों की सलाह थी कि केवल 2011 के जनगणना के आंकड़ों के सहारे कानून बनाया गया तो अन्य पिछड़ा वर्ग का आरक्षण पांच प्रतिशत से अधिक नहीं हो पाएगा।
बताया जा रहा है कि आरक्षण पर चर्चा का प्रस्ताव कैबिनेट के मिनट्स में शामिल नहीं था। लेकिन सबसे गंभीर समस्या के तौर पर इसपर बात हुई। आदिवासी समाज से संबद्ध कुछ मंत्रियों का कहना था कि सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबा चल सकता है। इसकी वजह से समाज का हित प्रभावित होगा। नौकरी और शिक्षा में युवाओं को दिक्कत होगी। इससे लोगों में नाराजगी भी बढ़ सकती है। ऐसे में अध्यादेश के जरिए या विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर एक विधेयक पारित कर 32% आरक्षण की व्यवस्था को बहाल कर दिया जाए। वहीं इस कानून को संविधान की नवीं अनुसूची में शामिल करा लिया जाए ताकि न्यायालय की समीक्षा से यह विषय बाहर हो जाए।
अधिकारियों का कहना था, इसको राष्ट्रपति के पास विशेष मंजूरी के लिए भेजते समय आधार बताना होगा। अभी अपने पास अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या के आंकड़े हैं। यह 2011 की जनगणना में आये हैं। इसके सहारे अनुसूचित जनजाति को 32% और अनुसूचित जाति को 13% आरक्षण दिया जा सकता है। यह मिलाकर 45% हो जाएगा। अब अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए केवल 5% का आरक्षण बचेगा। यह नया संकट खड़ा कर देगा। ऐसे में अच्छा होगा कि अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग के गरीबों का पूरा आंकड़ा आने के बाद तथ्यों और तर्कों के साथ इसको आगे बढ़ाया जाए।
विधि एवं विधायी कार्य मंत्री मोहम्मद अकबर ने बताया, सरकार ने क्वांटिफायबल डेटा आयोग की रिपोर्ट का इंतजार करने का फैसला किया है। उनकी जल्दी रिपोर्ट देने को कहा गया है। वह रिपोर्ट आ जाएगी तो वैज्ञानिक तौर पर सरकार बताने की स्थिति में होगी कि प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग की संख्या कितनी है। उनकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण देने का तर्कसंगत फैसला हो सकेगा। उसके बाद ही सरकार अपना निर्णय लेगी और कदम उठाएगी।
दरअसल सरकार के सलाहकार उसे तमिलनाडू के आरक्षण कानून के फॉर्मूले पर आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। तमिलनाडू ने 1993 में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण विधेयक पारित कर राष्ट्रपति को भेजा था। 1994 में राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद उसे अधिसूचित कर दिया गया। इसकी वजह से वहां आरक्षण की सीमा 69% हो गई। उसके बाद तमिलनाडू ने केंद्र सरकार ने इस कानून को संविधान की नवीं अनुसूची में शामिल करवा लिया। केंद्र सरकार ने संविधान संशाेधन कर इस अधिनियम को नवीं अनुसूची में शामिल कर लिया। इसके बाद यह न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर हो गया।
सरकार की यह राह भी सुरक्षित नहीं दिख रही है। संविधानिक मामलों के जानकार बी.के. मनीष का कहना है कि तमिलनाडू का यह फॉर्मूला कर्नाटक राज्य के मामले में फेल हो चुका है। कर्नाटक ने आरक्षण 50% से अधिक किया था, उसे कोर्ट ने खारिज कर दिया। बाद में कर्नाटक ने एक समिति की सिफारिशों को आधार बनाकर फिर से आरक्षण बढ़ाया। इस बार कोर्ट ने उसे सही ठहराया। बाद में उस आधार को भी खारिज कर दिया गया। दूसरे अब नवीं अनुसूची भी न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं रही। संविधान के मौलिक ढांचे के उल्लंघन के आधार पर इसे भी चुनौती दी जा सकती है। ऐसे में सरकार का यह कदम भी सुरक्षित नहीं दिख रहा है।
राज्य सरकार ने 2012 आरक्षण के अनुपात में बदलाव किया था। इसमें अनुसूचित जनजाति वर्ग का आरक्षण 32% कर दिया गया। वहीं अनुसूचित जाति का आरक्षण 12% किया गया। इस कानून को गुरु घासीदास साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी। बाद में कई और याचिकाएं दाखिल हुईं। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने 19 सितम्बर को इसपर फैसला सुनाते हुये राज्य के लोक सेवा आरक्षण अधिनियम को रद्द कर दिया। इसकी वजह से आरक्षण की व्यवस्था खत्म होने की स्थिति पैदा हो गई है। शिक्षण संस्थाओं में भी आरक्षण खत्म हो गया है। भर्ती परीक्षाओं का परिणाम रोक दिया गया है। वहीं कॉलेजों में काउंसलिंग नहीं हो पा रही है।