12 वर्ष से कम उम्र के बच्चे के प्रति यौन अपराध रेप का आरोप सिद्ध होने पर पॉक्सो एक्ट के तहत आजीवन कारावास या मृत्युदंड का प्रावधान है। दू...
12 वर्ष से कम उम्र के बच्चे के प्रति यौन अपराध रेप का आरोप सिद्ध होने पर पॉक्सो एक्ट के तहत आजीवन कारावास या मृत्युदंड का प्रावधान है।
दूसरे अन्य मामलों की तरह 501 के अपराध में भी पीड़िता के उम्र का निर्धारण सामान्य तौर पर उसके स्कूल के सर्टिफिकेट से किया जाता है। पूरी के प्रकरणों में देखा गया है कि न्यायालयों के द्वारा स्कूल के दाखिला हरि प्रमाण पत्र में जो उम्र अंकित की गई है उसे मान्य किया गया है। जब पीड़िता के स्कूल का जैन दाखिला खारिज प्रमाण पत्र उपलब्ध हो और उसमें जन्म तिथि अंकित हो तो पीड़िता के उम्र के निर्धारण में सामान्य तौर पर विवाद नहीं होता। दाखिला खारिज प्रमाण पत्र में जो उम्र की तारीख दर्ज होती है उसे उसकी इंट्री करने वाले से प्रमाणित करा लिया जाता है। लेकिन विवाद की स्थिति वहां आती है जब पीड़िता स्कूल छोड़ चुकी हो स्ल कभी गई ना हो और उसके जन्मतिथि का कोई प्रमाण पत्र उपलब्ध नहीं होता।
ऐसे मामलों में न्यायालयों के द्वारा उम्र का निर्धारण करने के लिए योग्य चिकित्सकों के चिकित्सकीय परीक्षण और उसकी रिपोर्ट का सहारा लिया गया है। कई बार बचाव पक्ष के द्वारा पीड़िता के उम्र के संबंध में बचाव का तर्क नहीं लिया था ऐसे में अभी उसको फायदा नहीं मिल पाता है।
उम्र का कोई सरकारी सर्टिफिकेट उपलब्ध ना होमद्रास हाईकोर्ट ने हाल ही में यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के तहत दोषसिद्धि के फैसले को आईपीसी के एक प्रावधान के तहत यह कहते हुए संशोधित किया कि अभियोजन पक्ष अपराध के समय पीड़िता की उम्र स्थापित करने में विफल रहा था।
जस्टिस भरत चक्रवर्ती सलेम स्थित महिला कोर्ट की सेशन जज द्वारा पारित उस फैसले को चुनौती देने वाली एक अपील पर विचार कर रहे थे, जिसमें अपीलकर्ता को पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के साथ पठित 5(के) और 5(जे)(ii) तथा आईपीसी की धारा 506(i) के तहत अपराध का दोषी पाया गया था।
कोर्ट ने कहा कि जब अभियोजन पक्ष ने पीड़िता का स्थानांतरण प्रमाण पत्र पेश नहीं किया और जब पीड़िता ने अदालत के समक्ष स्पष्ट रूप से बयान दिया था कि उसकी जन्मतिथि 27.07.1995 थी, जो अपराध के समय उसे नाबालिग नहीं बना रही थी तो उसकी गवाही को उसकी सही उम्र के साक्ष्य के तौर पर उसकी जन्म तिथि रिकॉर्ड में लिया जाना चाहिए और इसलिए उसने आरोपों में बदलाव किया।
जस्टिस भरत चक्रवर्ती ने कहा,
" मेरा मत है कि 27.07.1995 को जन्म तिथि होने के संबंध में पीड़िता की गवाही को साक्ष्य के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है और घटना की तिथि के अनुसार, उसकी आयु अठारह वर्ष से अधिक है और इसलिए, कथित यौन संबंध भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत अपराध होगा और यह पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत अपराध नहीं हो सकता।"
मूल मामला यह था कि 30-वर्षीय अपीलकर्ता ने लगभग उन्नीस वर्ष की पीड़िता के साथ जबरदस्ती यौन संबंध बनाये थे। वह लड़की आरोपी की पड़ोसी थी और यौन संबंध के कारण वह गर्भवती हो गई। जब वह गर्भपात की दवा लेने दवा दुकान पर गई तो अपीलकर्ता की बहन ने उसका विरोध किया, इसके बाद उसने अपने पिता के सामने सारी बात कबूल कर ली। इसके बाद शिकायत दर्ज कराई गई।
प्रारंभ में मामला आईपीसी की धारा 376 और 506 (i) के तहत दर्ज किया गया था। जांच के दौरान पीड़िता के स्कूल हेडमास्टर ने पीड़िता को प्रमाण-पत्र दिया था, जिसमें उसकी जन्मतिथि 19.12.1996 दर्ज थी। इस प्रकार चूंकि घटना के समय पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम थी, इसलिए मामले को बदलकर पॉक्सो एक्ट के तहत कर दिया गया।
ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को आईपीसी की धारा 506(i) और पॉक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत अपराध का दोषी पाया और तदनुसार सजा सुनाई।
अपीलकर्ता ने दलील दी कि पीड़ित लड़की ने अपने साक्ष्य में भी कहा है कि उसका जन्म 27.07.1995 को हुआ था। उसने यह भी कहा था कि यही तारीख उसके स्कूल रिकॉर्ड, विकलांगता विभाग द्वारा पहचान प्रमाण पत्र और उसकी कुंडली आदि सहित उसके सभी दस्तावेजों में मिलती है। इस प्रकार, जब अभियोजन पक्ष ने इस संबंध में उसका प्रतिकार नहीं किया और उससे जिरह नहीं की, तो उसकी गवाही को उसकी जन्मतिथि के प्रमाण के रूप में माना जाना चाहिए था।
इतना ही नहीं, स्थानांतरण प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने के बजाय, अभियोजन पक्ष ने केवल प्रधानाध्यापक द्वारा जारी एक प्रमाण पत्र का उल्लेख किया था। उसने यह भी तर्क दिया कि उसने सहमति से यौन संबंध बनाया था और इस तथ्य पर ध्यान आकर्षित किया कि पीड़िता ने किसी को भी अपराध के बारे में जाहिर नहीं किया था और उसने तभी इसे जाहिर किया था जब वह गर्भावस्था को छुपा नहीं सकी थी।
दूसरी ओर अभियोजन पक्ष ने किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियमावली के नियम 12 (2) पर निर्भर था। इस नियम के अनुसार अभियोजन पक्ष को सबसे पहले यह देखना चाहिए कि पीड़िता के पास एसएसएलसी या 12वीं का सर्टिफिकेट है या नहीं। यदि यह नहीं है तो अभियोजन पक्ष को लड़की के जन्म की तारीख के संबंध में स्कूल से प्रमाण पत्र लेना था।
कोर्ट ने पीड़िता की उम्र के निर्धारण के संबंध में 'जरनैल सिंह बनाम हरियाणा सरकार' के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित प्रक्रिया की सावधानीपूर्वक जांच की। मौजूदा मामले में, मैट्रिक या समकक्ष प्रमाण पत्र उपलब्ध नहीं था क्योंकि पीड़िता स्कूल छोड़ चुकी थी। इसलिए दूसरा विकल्प पीड़िता के जन्म प्रमाण पत्र में दर्ज तारीख थी।
गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यौन अपराधों से संबंधित बाल संरक्षण अधिनियम (Protection of Children from Sexual Offences Act – POCSO) के प्रावधानों को मानसिक रूप से मंद वैसे वयस्कों पर जिनकी मानसिक आयु एक बच्चे के समान है, लागू करने से इंकार कर दिया है |
महत्त्वपूर्ण बिंदु
- संभवतः ऐसा करने का एक कारण यह भी है कि पोक्सो के अंतर्गत ‘बच्चा’ शब्द की सटीक व्याख्या के रूप में यह स्पष्ट किया गया है कि यह शब्द 18 वर्ष से कम आयु के लोगों को प्रदर्शित करता है तथा इसके अंतर्गत उन वयस्कों को भी शामिल किया जाएगा जिनकी मानसिक आयु 18 वर्ष से कम है|
- मानसिक रूप से वयस्क परंतु जैविक रूप से 18 वर्ष से कम आयु वाले लोगों को इसके अंतर्गत स्थान नहीं दिया गया है|
- इस अधिनियम के अंतर्गत इस बात पर विशेष ध्यान दिया गया है कि अपर्याप्त बौद्धिक क्षमता वाले वयस्क और बच्चे के साथ यौन अपराध के मामले में किस प्रकार का व्यवहार किया जाए क्योंकि दोनों ही में परिस्थितियों को समझने अथवा उनका विरोध करने की क्षमता नहीं होती है|
- इसमें कोई संदेह नहीं है कि पोक्सो के ढाँचे के अंतर्गत जैविक और मानसिक आयु दोनों के विषय में अधिक से अधिक स्पष्टीकरण एवं प्रावधानों को लागू करने संबंधी कोई भी विस्तृत परिभाषा अधिनियम से संबद्ध संवेदनशील लोगों के वर्ग को लाभ अवश्य पहुँचाएगी|
- संभवतः यही कारण है कि न्यायालय ने इस संबंध में किसी भी न्यायिक हस्तक्षेप से निपटने के लिये चुनौतीपूर्ण मार्ग को चुना है| या यूँ कहे की न्यायालय इस प्रश्न का उत्तर खोजने का भी प्रयास किया जा रहा है कि क्या जैविक एवं मानसिक उम्र संबंधी इस विवादास्पद धारणा का विस्तार करना पोक्सो के अधिकार क्षेत्र में है अथवा नहीं|
पोक्सो क्या है?
- पोक्सो, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण करने संबंधी अधिनियम (Protection of Children from Sexual Offences Act – POCSO) का संक्षिप्त नाम है|
- संभवतः मानसिक आयु के आधार पर इस अधिनियम का वयस्क पीड़ितों तक विस्तार करने के लिये उनकी मानसिक क्षमता के निर्धारण की आवश्यकता होगी|
- इसके लिये सांविधिक प्रावधानों और नियमों की भी आवश्यकता होगी| जिन्हें विधायिका अकेले ही लागू करने में सक्षम है|
न्यायालय का मत
- न्यायालय के मतानुसार, किसी की मानसिक क्षमता के आधार पर किसी वयस्क के साथ बच्चे के समान व्यवहार करना, मौज़ूदा कानून (यौन अपराधों से बाल संरक्षण) में प्रतिरोध उत्पन्न कर सकता है|
- न्यायालय द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया कि किसी व्यक्ति की मानसिक क्षमता के विभिन्न स्तर हो सकते हैं और इनमें से जो व्यक्ति हल्के, मध्यम या मंदता की सीमा रेखा पर हैं वैसे लोगों को सामान्य सामाजिक परिस्थितियों में जीने योग्य माना जाता है|
मुद्दा क्या था?
- न्यायालय के समक्ष मानसिक पक्षाघात वाली बलात्कार की शिकार एक 38 वर्षीय महिला का मामला था| पीड़िता की माँ के द्वारा उक्त मामले को पोक्सो के अंतर्गत एक विशेष न्यायालय को स्थानांतरित करने की अपील की गई थी| उसके अनुसार, उसकी बेटी की मानसिक उम्र मात्र छह वर्ष की है| अत: इस मामले की सुनवाई पोक्सो के अंतर्गत की जानी चाहिये|
- इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह निर्णय दिया गया कि न्यायाधीशों को ऐसे मामलों में सबूतों के आधार पर निर्णय करते समय पीड़ितों की मंदता और उनके समझने के स्तर को भी ध्यान में रखना चाहिये|
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह निराशाजनक होगा यदि पीड़ित के प्रभावी तौर पर सम्पर्क न कर सकने अथवा उसके शब्दों को समझने में न्यायालय की असमर्थता के कारण ऐसे किसी मामले का समय पर उचित समाधान नहीं किया जा रहा है|
- ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि विधायिका पीड़ित की मानसिक क्षमता का निर्धारण करने के लिये क़ानूनी प्रावधानों की शुरुआत पर विचार करें ताकि अपर्याप्त मानसिक विकास वाले पीड़ितों द्वारा प्रस्तुत पक्षों का उपयोग यौन अपराधियों के ख़िलाफ़ प्रभावी तौर पर कार्यवाही करने के रूप में किया जा सकें|
मेघालय हाईकोर्ट (Meghalaya High Court) ने हाल ही में कहा कि यह न्यायालय पर निर्भर है कि पॉक्सो मामले (POCSO Act) की सुनवाई करते हुए उसे मामले को आगे बढ़ाने से पहले पीड़ित की उम्र के बारे में निश्चित होना चाहिए।
जस्टिस डब्ल्यू. डिएंगदोह की ओर से आई यह टिप्पणी में कहा गया:
"बच्चे के खिलाफ अपराध की सुनवाई विशेष अदालत द्वारा की जानी चाहिए। हालांकि, यह अदालत के लिए मामले की शुरुआत से निश्चित अधिकार होना अनिवार्य है कि उक्त मामले में पॉक्सो अधिनियम में पाई गई परिभाषा के अनुसार, बच्चा शामिल है। इस संदर्भ में,आगे की कार्यवाही शुरू करने से पहले आयु निर्धारण बहुत महत्वपूर्ण है।"
अदालत ने आगे कहा कि मामले की जड़ तक जाने के लिए पीड़ित की उम्र का निर्धारण महत्वपूर्ण मुद्दा है, इसलिए इसे प्रारंभिक मुद्दे के रूप में तय किया जाना चाहिए। हालांकि, अपीलीय स्तर सहित कार्यवाही के किसी भी चरण में इस मुद्दे को उठाया जा सकता है।
इस संबंध में कोर्ट ने कहा,
"पॉक्सो मामले में पीड़ित की उम्र का सबूत या निर्धारण मूलभूत है और ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे के लिए जो विचारणीय है, उसे मामले के जीवनकाल के किसी भी चरण में यहां तक कि अपीलीय फोरम के समक्ष भी उठाया जा सकता है। इसलिए कहने के लिए कि यह न्यायालय इस मुद्दे पर अपीलीय स्तर पर निर्णय नहीं ले सकता, सच्चाई से बहुत दूर होगा।"
अदालत पीड़िता के निजी अंगों को छूने के लिए पॉक्सो अधिनियम की धारा 7/8 के तहत अपीलकर्ता की सजा के खिलाफ दायरअपील पर सुनवाई कर रही थी।
अपीलकर्ता ने पीड़ित की उम्र का विरोध किया और तर्क दिया कि इसे विशेष न्यायालय द्वारा पहले और प्रारंभिक मुद्दे के रूप में लिया जाना चाहिए। उसने प्रस्तुत किया कि इससे पहले कि पॉक्सो न्यायालय मामले का संज्ञान ले सके मूलभूत तथ्य को साबित करना होगा और पॉक्सो एक्ट की धारा 29 के तहत आरोपी पर साबित करने का बोझ डालने से पहले पीड़ित की उम्र अभियोजन द्वारा स्थापित की जानी चाहिए।
उसने तर्क दिया कि इस मामले में कभी भी कोई दस्तावेज पेश नहीं किया गया, पीड़िता की उम्र निर्धारित करने के लिए कोई मेडिकल जांच नहीं की गई, जो 10वीं कक्षा की छात्रा है। उसके अनुसार, पीड़ित की प्रासंगिक अवधि में उम्र 16 वर्ष थी।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम में अभियोजन पक्ष को या साबित करना होता है कि इसमें अभियुक्त की सहमति शामिल नहीं थी। पोक एक्ट में पीड़िता की आयु को देखा जाता है। उसमें सहमति असहमति की कोई शर्त नहीं है। कई प्रकरणों में यह बात सामने आई कि आरोपी और साथियों ने न्यायालय के समक्ष एक पीड़िता की पूरी कि मामले में पूरी सहमति होने का दावा किया और साक्षी प्रस्तुत किया है लेकिन एक्ट के प्रावधान के अनुसार न्यायालय के द्वारा आरोपी को कड़ी से कड़ी सजा सुनाई गई। न्यायालयों में विभिन्न प्रकरणों में फैसला दिया है कि अवयस्क बालिका की सहमति का कोई अर्थ नहीं है।
पोक्सो एक्ट के प्राथमिक किस तरह से होनी चाहिए जांच और परीक्षण
पोक्सो एक्ट में प्रावधान है कि एक महिला उपनिरीक्षक को पीड़ित बच्चे का बयान बच्चे के निवास स्थान पर या पसंद के स्थान पर दर्ज किया जाना चाहिए लेकिन इस प्रावधान का पालन होना व्यावहारिक तौर पर संभव प्रतीत नहीं होता है। पुलिस बल में महिलाओं की संख्या मात्र 10% है और कई पुलिस थानों में शायद ही कोई महिला कर्मी उपस्थित होती है सबसे गंभीर बात है कि पोक्सो एक्ट के अपराध ऐसे ही इलाकों में अधिक से अधिक घटित हो रहे हैं।
सफी मोहम्मद बनाम स्टेट ऑफ़ हिमाचल प्रदेश वर्ष 2018 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि जघन्य अपराधों के मामले में यह जांच अधिकारी का कर्तव्य है कि वह अपराध स्थल की फोटोग्राफी एवं वीडियोग्राफी करें और साक्ष्य के रूप में इसे संकलित करें तथा इंकार भाइयों को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाए। इलेक्ट्रॉनिक साक्षी की अखंडता सुनिश्चित करने के लिए उचित और संरचना के अभाव में किसी भी ऑडियो वीडियो माध्यम का उपयोग कर रिकॉर्ड किए गए साक्षी की न्यायालय के समक्ष स्वीकार्यता ऐडमिसिबिलिटी हमेशा से चुनौती बनी रही है।
पास्को एक्ट में प्रावधान कर अभियोजक अभियुक्ति के बयान को अनिवार्य बनाया गया है। अधिकांश मामलों में इस तरह के बयान दर्ज किए जाते हैं लेकिन विचारणा सुनवाई के दौरान न्यायिक मजिस्ट्रेट को cross examination के लिए शायद ही कभी बुलाया जाता है। वही अपने बयान से मुकर जाने वाले किसी साथी को भी कभी दंडित नहीं किये जाते देखा नही गया है। ऐसे कई बयान निरस्त हो जाते हैं।
किशोर अपराधी के आयु का निर्धारण किशोर न्याय बच्चों की देखभाल और संरक्षण अभियान द्वारा निर्देशित तथा संरक्षित है। पासपोर्ट अधिनियम में किशोर अपराधी की आयु का निर्धारण हेतु अलग से कोई प्रावधान नहीं किया गया है।
जनरल सिंह बनाम हरियाणा राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अपराध का शिकार किसी बच्चे भी आयोजित करने में कोई सहयोगी आधार होना चाहिए।
ऐसे मामलों में जांच अधिकारी के द्वारा स्कूल प्रवेश त्याग रजिस्टर में दर्ज जन्मतिथि पर ही भरोसा किया जाता है।
जहां अस्पताल अथवा किसी संस्थान का प्रमाणिक रिकॉर्ड नहीं होने पर माता-पिता न्यायालय में आयु का बचाव करने में असमर्थ असहाय नजर आते हैं।
चिकित्सक के आधार पर आयु का अनुमान आमतौर पर इतना व्यापक होता है कि अधिकांश मामलों में अल्प व्यस्त व्यस्त के घोषित कर दिए गए दिखते हैं। अल्प व्यस्क के व्यस्क घोषित हो जाने के बाद सहमति या यौन अंगों पर आघात ना लगने के आधार पर दोषी के बरी होने की संभावना बढ़ जाती है।
पोक्सो एक्ट में प्रावधान है कि इसके अंतर्गत आने वाले प्रकरण की जांच अपराध होने या अपराध की रिपोर्टिंग की तिथि से 1 माह की अवधि के भीतर जांच पूरी कर ली जानी चाहिए लेकिन प्रयाग संसाधनों की कमी फॉरेंसिक साक्ष्य प्राप्त करने में देरी तथा मामले की जटिलता जैसे विभिन्न कारणों से बाहरी तौर पर ऐसे मामलों की जांच में 1 महीने से अधिक का समय लग जाता है और न्याय मिलने में देरी होती है।
महिलाओं की स्थिति में सुधार
समय बीतने के साथ सरकार ने महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए कई महत्वपूर्ण कानून बनाए हैं। स्त्री शिक्षा को अनिवार्य किया गया है। लड़की के मर्जी के बगैर साली पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। तलाक को कानूनी दर्जा दिया गया है। अब महिलाएं अपनी मर्जी के अनुसार किसी भी हुनर की ट्रेनिंग ले सकते हैं। छत्तीसगढ़ राज्य में भी यह सुविधाएं सरकार की ओर से उपलब्ध कराई गई हैं लेकिन देखा जा रहा है कि ग्रामीण इलाकों में या कानून अपना काम तो कर रहा है लेकिन अपराध भी समानांतर और पर बढ़ते जा रहे हैं।