00 त्वरित विश्लेषण /आलेख 00 अशोक त्रिपाठी चाहे गुलामी का दौर रहा हो, चाहे आततायियों का शासन, या फिर आजादी के बाद के आज...
00 त्वरित विश्लेषण /आलेख
00 अशोक त्रिपाठी
चाहे गुलामी का दौर रहा हो, चाहे आततायियों का शासन, या फिर आजादी के बाद के आज का समय, बालकों को कुचले जाते, शोषित होते प्रताड़ना झेलते भारत देश ने सदियों-सदियों से देखा है। इतिहास के पन्नों को पलटने पर आततायियों की मानवता को शर्मसार कर देने वाले असहनीय दुष्कृति के शिकार, उन बालकों की चित्कार,उनकी सिसकियां आज भी कान के पर्दों को फाड़ देने लगते हैं। हम सबको याद होगा कि आक्रमणकारियों का आक्रमण होता था, किसी गांव शहर पर आक्रमण होता था तो वे लोग, सबसे पहले मासूम अबोध बालकों को ही खोज खोजकर अपना शिकार बनाते थे। आक्रमणकारियों ने उन्हें बेरहमी से कुचला और व्यपहरण कर कहां ले जाकर उनके साथ किस तरह का दुष्कृत किया,किसी को वर्षोंवर्ष तक पता तक नहीं चला। आततायी,पड़ोस में रहने वाले बालकों,का जीना मुश्किल करते रहे। आताताइयों, आक्रमणकरियों की भीषण पीड़ा सहने वाले बालकों को न्याय दिलाने शायद ही कभी कोई सामने नहीं आया होगा। आज सभ्य होने का दावा करने वाले समाज में भी बालकों की सिसकियां थम नहीं रही है। विकृत अपराधिक प्रवृत्ति के खूंखार शातिर, वयस्कता की ओर बढ़ रहे बालक को किसी न किसी तरीके से अपने जाल में फंसा लेने का षड्यंत्र करते जगह-जगह नजर आते हैं। और इससे बिलकुल इंकार नहीं किया जा सकता कि इन आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को उनके परिवार का भी पूरा संरक्षण प्राप्त होता है। कभी ट्यूशन पढ़ने वाले अत्यंत भरोसे के समझे जाने वाले शिक्षक ही उनके शरीर से खिलवाड़ करने पर उतारू देखते हैं तो कभी सुआं नृत्य के आयोजक, साड़ी पहनने के बहाने उन्हें नोचने की कोशिश में लग जाते हैं। पोस्को एक्ट की धाराओं में अप्राप्तवय बालक के साथ दुष्कर्म, व्यपहरण, अश्लील कृतय के मामले में कड़े दंड का प्रावधान किया गया है। खुशी की बात है कि न्यायालयों ने भी न्याय के इन प्रावधानों का शक्ति और सख्ती के साथ प्रयोग किया है और दोषियों को कड़ा दंड दिया है। एक वर्ग के द्वारा पोस्को एक्ट के कुछ मामलों में कड़े दंड पर आपत्तियां जाहिर की जा रही है। ऐसी आपत्तियां, शिकायतें बढ़ गई तो देश का विधि विभाग इन पर विचार कर रहा है। यह आपत्तियां इस कानून में कतिपय फेरबदल करने की मांग के साथ की जा रहे हैं।यह कहा जा सकता है कि बालकों को सुरक्षा प्रदान करने कानून में जो प्रावधान किए हैं, उन्हें एकाएक बदल देने से कई तरह की विसंगतियां खड़ी हो सकती हैं। फिलहाल पोस्को एक्ट के दंड से अपराधियों में भय नजर आ रहा है। और शायद ही कोई ऐसा कहने वाला मिलेगा कि अपराधियों में ऐसा भय नहीं रहना चाहिए। समाज में आपराधिक प्रवृति के लोगों में भय होना चाहिए। यह भय, खत्म नहीं होना चाहिए।
पोक्सो एक्ट, लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम 2012, 18 वर्ष से कम आयु के अप्राप्तवय बालक के साथ शारीरिक हिंसा, दुष्कर्म, व्यपहरण, अश्लील हरकत, बेड टच को पूरी तरह से निषिद्ध करता है और इसके अपराध पर कड़े दंड का प्रावधान करता है।इस एक्ट की धारा 5 के अनुसार गंभीर प्रवेशन यौन हमले के मामले में (1) जो कोई गंभीर प्रवेशन यौन हमला करता है, उसे कठोर कारावास से दंडित करने, जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम नहीं होगी, लेकिन जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है, जिसका अर्थ उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास होगा। व्यक्ति को जुर्माना या मौत की सजा भी हो सकती है। और (2) उप-धारा (1) के तहत लगाया गया जुर्माना उचित होगा और पीड़ित को ऐसे पीड़ित के चिकित्सा खर्च और पुनर्वास को पूरा करने के लिए भुगतान किया जाएगा, का प्रावधान किया गया है। वही एक की धारा चार के अंतर्गत प्रावधान है कि जो कोई सोलह वर्ष से कम उम्र के बच्चे पर प्रवेशन यौन हमला करेगा, उसे कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम नहीं होगी, लेकिन जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है, जिसका अर्थ कारावास होगा। उस व्यक्ति के प्राकृतिक जीवन का शेष भाग और जुर्माने का भी भागी होगा। बालकों को शारीरिक सुरक्षा प्रदान करने और उन्हें भय मुक्त जीवन जीने के लिए अवसर सुनिश्चित करने के उद्देश्य से अधिनियम में ये प्रावधान किए गए हैं। बालकों को संरक्षण, सुरक्षा और सुविधा प्रदान करना हमारे समाज,राष्ट्र का प्रमुख उद्देश्य भी होना चाहिए। बच्चे देश का भविष्य होते हैं, उन्हें ही राष्ट्र के आगे का विकास सुनिश्चित करना है तो ऐसे में वे अंधकारमय जिंदगी जीने के लिए मजबूर रहेंगे, खूंखार अपराधियों की हिंसा से जूझते रहेंगे, तो ना तो वे विकास के पथ पर आगे बढ़ सकेंगे और किसी भी राष्ट्र के समुचित विकास की अवधारणा अधूरी रह जाएगी।
पोस्को एक्ट के विभिन्न धाराओ में अंतरनिहित कड़े दंड के प्रावधानों पर आपत्तियां की जा रही हैं। आपत्ति है कि दोनों पक्षों की सहमति के बाद यौन हिंसा के मामलों में 20 साल के कठोर कारावास की सजा देना न्याय संगत नहीं हो सकता।इस सजा की अवधि पर सवाल उठाए जा रहे हैं। यहां सवाल यह है कि जिस अपराध में ऐसे कड़े दंड के प्रावधान किए हैं गए हैं वहां वैसा वह अपराध करना क्या जरूरी है ? अपराधी क्या ऐसा अपराध किए बिना नहीं रह सकता ? यौन हिंसा के ऐसे मामलों में ऐसे तथ्य बार-बार सामने आए हैं कि ऐसे मामलों में तमाम तरह के अपराध षड्यंत्रपूर्वक किए जाते हैं। दूसरों को नीचा दिखाने के लिए किए जाते हैं। दूसरे के सम्मान- प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने के लिए किए जाते हैं तो ऐसे अपराधों में क्या सजा कम कर लेनी चाहिए? हर अपराधी, अपने आप को बेकसूर साबित करने की पूरी कोशिश करता है और उपर्युक्त सारे हेतुक होने के बावजूद न्यायालय के समक्ष वह अपराधी, अपने बचाव में तमाम तरह के तर्क लेता है और वह दोषसिद्ध हो जाने पर भी चाहता है कि उसे कम से कम सजा मिले। माननीय विद्वान न्यायाधीशों को भी अपने न्यायालयों में ऐसे मामलों में विचारण सुनवाई के दौरान महसूस हो सकता है कि दोनों पक्षों की सहमति के फल स्वरुप ऐसा अपराध कारित हुआ है, लेकिन इससे खुशी हो सकती है कि न्यायालयों ने हमेशा एक्ट के प्रावधानों के अनुसार ही न्याय किया है और सजा सुनाई है। न्याय का यही सिद्धांत है कि अपराधी ने अपराध कारित कर दिया है इस वजह से उसे बाद में किन्हीं भी परिस्थितियों में अपराध के दंड में छूट नहीं दे देना चाहिए और कोई भी अपराधी दोष सिद्ध हो जाने के बाद सजा में छूट पाने का किसी भी तरह से हकदार नहीं हो जाता। 18 वर्ष से कम अप्राप्तवय बालक के साथ यौन हिंसा नहीं होना चाहिए। किसी भी रूप में नहीं होना चाहिए और सबको इस कानून को मानना चाहिए। जब कानून में प्रावधान है तो किसी को भी सहमत कर भी ऐसा प्राप्त नहीं करना चाहिए। ऐसे अपराध का दंड पाने से बचने के लिए ऐसा अपराध करने से ही बचना चाहिए। ना कि समाज के ऐसे विकृत मानसिकता वाले अपराधियों को बचाने के लिए कानून के प्रावधानों को ही बदल देने की जरूरत है।
पोस्को एक्ट के दंड के प्रावधानों पर इन दिनों चर्चाए चल रही है। अभी सबसे बड़ा मुद्दा "यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 के तहत सहमति की आयु" का विषय बना हुआ है तथा इसमें आयु को संशोधन करने के सुझाव दिए जा रहे हैं। इस मुद्दे पर बहस से शुरू हुई है कि जहां पीड़िता और आरोपी के बीच सहमति दिखती है तो ऐसे मामलों में पीड़िता की उम्र कितनी होनी चाहिए।अधिनियम के तहत इसके अपराध में अभियुक्त को दोष सिद्ध होने पर 10 वर्ष से अधिक के सश्रम कारावास की सजा देने का प्रावधान है। सवाल उठाया जा रहा है कि जब पीड़िता, आरोपी और उनके परिवार के सदस्यों के बीच सहमति थी तब आरोपी को ही इतनी सजा क्यों मिलनी चाहिए। हम यह कहना चाहते हैं कि ऐसे अपराधों में बचाव का यह एक बड़ा और बेहतर तर्क हो सकता है। लेकिन ऐसे करके देने वाले से विद्वानों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि जब कानून में इस तरह के दंड के प्रावधान है तो अपराधी को इतनी समझ कयों नहीं है कि उसे ऐसा अपराध नहीं करना चाहिए।
पिछले दिनों कर्नाटक उच्च न्यायालय ने पास्को एक्ट में सहमति से संबंधित मामलों में उम्र पर पुनर्विचार करने को कहा है। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ग्वालियर बेंच ने भी संबंध में सुझाव दिए हैं। असल बात न्यूज़ के द्वारा भी पिछले दिनों अपने विशेषण में इस मुद्दे से संबंधित कई तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है।विधि विभाग ने अभी इस संबंध में सरकार को रिपोर्ट सौंपी है।देश में कई चर्चित कानूनों में समय-समय पर आम नागरिकों के हितों के संदर्भ में संशोधन किया गया है। अभी सबसे अधिक पोस्को एक्ट चर्चाओ में है। पोस्को एक्ट में उम्र को लेकर एक विवाद शुरू हुआ है। जहां पीड़िता और आरोपी के बीच सहमति दिखती है कि ऐसे मामलों में पीड़िता की उम्र कितनी होनी चाहिए तब उस अपराध में पोस्को एक्ट लागू होगा। आपसी सहमति है, विवाद नहीं है, सब कुछ राजी खुशी है तो मामला न्यायालय तक पहुंचता ही नहीं है। हो सकता है कि कई मामलों में कानून के प्रावधानों का दुरुपयोग किया जाता है। लेकिन हम खुद सावधानी से ऐसे दंड से बच सकते हैं। आपसी सहमति है भी तो 18 साल पूरे होने का इंतजार किया जा सकता है। यौन हिंसा सिर्फ शारीरिक अपराध नहीं है वरन् सामाजिक अपराध भी है इससे पीड़ित बालक हीन भावना से जीवन भर ग्रसित रह सकता है। पोक्सो एक्ट में वास्तव में समाज में बालकों को सुरक्षा पहुंचने की दिशा में नए सिरे से काम शुरू किया है और इससे अपराधियों के खिलाफ कड़ा संदेश भी गया है। समाज में अभी सख्त कानून की जरूरत भी है। ऐसे में फिलहाल तो हमें इसके दंड के प्रावधानों में संशोधन से बचना ही चाहिए। यह जरूर किया जा सकता है कि देश में कानून में जो दंड के प्रावधान है उसका अधिक से अधिक प्रचार किया जाना चाहिए किसी कोई आकार देने का मौका ना मिले की कानून के बारे में जानकारी नहीं होने की वजह से वह ऐसा अपराध कर बैठा। यह भी एक बड़ी विडंबना है कि देश में कानून के प्रावधानों और उसके दंड का अधिक प्रचार नहीं किया जाता, लेकिन यह जरूर मान लिया जाता है कि सभी नागरिकों को देश के पूरे कानूनों के बारे में पूरी जानकारी है। विकास के कार्यों के प्रचार प्रसार पर करोड़ों रुपए फूंक दिए जाते हैं लेकिन सरकार के द्वारा कानूनों का प्रचार प्रसार करने, जन जन तक उसके बारे में जानकारी पहुंचाने में कोताही बरती जाती है। अपेक्षाकृत । हमें ऐसा कोई कदम उठाने से अनिवार्य रूप से बचने की जरूरत है जिससे कि पैशाचिक,विकृत मानसिकता वाले वहशी दरिंदों के कृत्यों से बालकों को सुरक्षित रखने के प्रयासों में कोई कमी आती ना दिखने लगे। किसी भी तरह के संशोधन से इसमें जो कानून की मंशा है उस पर भी प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
00 वरिष्ठ पत्रकार