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'ये' नहीं है, किसी के 'चुनावी मुद्दे, असली छत्तीसगढ़िया ....... पलायन के लिए मजबूर'

  छत्तीसगढ़ ।  असल बात न्यूज़।।        00  अशोक त्रिपाठी   यह छत्तीसगढ़ की व्यथा है। लाख कोशिशें के बावजूद इस राज्य से शिक्षित बेरोजगारों और...

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छत्तीसगढ़ ।

 असल बात न्यूज़।।   

   00  अशोक त्रिपाठी  

यह छत्तीसगढ़ की व्यथा है। लाख कोशिशें के बावजूद इस राज्य से शिक्षित बेरोजगारों और कुशल श्रमिकों का पलायन रुक नहीं रहा है।आप जो चित्र देख रहे हैं उसमें, पर साफ दिखेगा कि सर पर भारी बोझा लादे राज्य के परिश्रमी कुशल श्रमिकों का, परिवार सहित कैसे पलायन हो रहा है। जब हम विकास की बात करते हैं विकास में काफी आगे बढ़ जाने की बात करते हैं तो ऐसी तस्वीर आती है तो लगता है कि हम जो बातें कर रहे हैं,जो दावे कर रहे हैं और हमारी कल्पनाएं सिर्फ कागजों में बहुत आगे बढ़ रही है,  जमीनी सच्चाई इसके उलट है। सोचिए कितनी पीड़ादायक स्थिति है कि ये पलायनकर्ता भी कहीं ना कहीं के मतदाता भी हैं और छत्तीसगढ़ का प्रतिष्ठापूर्ण विधानसभा चुनाव सिर पर है,तो उसमें,इन्हें भी तो मतदान करना है। लेकिन इनके लिए शायद अपने "मताधिकार" को छोड़कर अपनी रोजी-रोटी के लिए काम की तलाश में बाहर जाना जरूरी है। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि 'वे' जब अपने गांव वापस लौटते हैं तो उन्हें पता चलता है कि उनका 'वोट' तो पड़ गया था। हम सब शतप्रतिशत मतदान की कल्पना में लगे हुए हैं। पूरे तंत्र के द्वारा इसके लिए मेहनत की जा रही है कि कोई भी मतदान करने से वंचित न रह जाए।ऐसे भारी पलायन को देखकर  मतदान का प्रतिशत तो,हमें 'अभी' से कम होता' दिख रहा है।

छत्तीसगढ़ के मेहनत का लोगों का पलायन शायद कई लोगों के लिए अधिक दुखदाई ना हो और उन्हें लगता हो कि ये लोग तो शौक से इसी तरह से भटकते हैं,ये इनकी मौज मस्ती है। ऐसी सोच रखने वाले लोगों को एक बार यह भी जरूर सोच कर देखना चाहिए कि अपना घर बार, सब कुछ छोड़कर परिवार सहित अनजानी जगह में जाना, वहां काम करना, वहां अस्थाई ठिकाने में अनिश्चितताओं  के भंवर में फंसे रहकर रहना और फिर कुछ कमाई कर, बोरिया बिस्तर के साथ अपने जब में कुछ समेट कर गांव में लौटना और अंततः मन मार कर वापस जाने के कुचक्र की पीड़ा सहना कितना दुखदाई होता है।

 ये वे लोग हैं जो काम की तलाश में हर साल छत्तीसगढ़ से बाहर दूसरे राज्यों की ओर चले जाते हैं। असली छत्तीसगढ़िया....। इन्हें भी भंवरा चलाना आता है। पिट्ठूल भी खेलना आता है और बांटी भी खेल लेते हैं। बारिश के दिनों में गेड़ी पर चलना,इनका शौक नहीं बल्कि इनकी  मजबूरी है, क्योंकि उनके गांव की गलियां बारिश के दिनों में  इतनी दलदली हो जाती हैं कि उस पर चलने से पैरों में सडन होने लगती है।यह अलग बात है कि इनपर काम का इतना अधिक बोझ होता है कि इन्हें अब उक्त सारे खेल,खेलना भारी लगता है ।यहां राज्य से हर दिन सैकड़ो की संख्या में मजदूरों का काम की तलाश में पलायन हो रहा है।और आप गौर से देखेंगे तो आपको प्रत्येक सार्वजनिक स्थलो में ऐसे ही लोग, भटकते हुए देखने को मिल जाएंगे। राजधानी रायपुर के रेलवे स्टेशन, दुर्ग राजनांदगांव, बिलासपुर, रायगड़ इत्यादि रेलवे स्टेशनों पर में ऐसे लोगों की दिनभर आपको भारी भीड़ दिख जाएगी। इनमें से ज्यादातर कुशल श्रमिक काम करने के लिए प्रयागराज, जम्मू लखनऊ, दिल्ली,अहमदाबाद, मुंबई इत्यादि स्थानों पर जाते हैं।भारी बोझ उठाने से उनके माथे पर छलक आई पसीने की बूंदे उनकी व्यथा की कथा सुनाती है। ऐसा नहीं है कि काम की तलाश में इनका पलायन पहली बार होने जा रहा है।ये कुशल मजदूर हैं। इन्हें, छत्तीसगढ़ में समुचित काम नहीं मिलता और समुचित मजदूरी नहीं मिलती, इसलिए ये काम के लिए दूसरे राज्य में चले जाते हैं। राज्य में चाहे शिक्षित बेरोजगार हो, चाहे कुशल मजदूर हो उनके पलायन को रोकने के लिए कभी ठोस प्रयास नहीं किए गए हैं। दुखद की बात है कि इनके पलायन से कई गांव के गांव खाली हो जाते हैं। उनके पलायन के बाद कई गांव में मरघट के जैसी बैचेन शांति छा जाती है। हजारों माता-पिताओ का इकलौता बेटा,उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद मन के अनुरूप रोजगार नहीं मिलने से बेंगलुरु पुणे अहमदाबाद दिल्ली विशाखापट्टनम में रोजगार खोजने के लिए मजबूर है और छोटा-मोटा जो रोजगार मिल रहा है उसमें अपना जीवन निर्वाह कर ले रहे हैं। या हालत उस परिवार के लिए कितनी पीड़ा दायक है,उसे समझना आसान नहीं है।

सबसे बड़ी विडंबना है कि हम लोगों ने इन चीजों को कभी गंभीरता से नहीं लिया है कि उनके पलायन से पूरा गांव का गांव खाली हो जाता है। कई घरों में शाम को दिया जलाने वाले भी नहीं रह जाते हैं।जब ये वापस लौटते हैं, तो बारिश पानी आंधी तूफान सहते हुए उनके घर उजड़े हुए नजर आते हैं। त्रासदी तो यह है कि उनके गांव में बाहरी लोगों का भी बसेरा दिखने लगता है। पता नहीं कहां-कहां से आने वाले अतिक्रमणकारी,उनके गांव में अपना ठिकाना बनाये नजर आने लगते हैं। और कई ऐसे झंडा लहराते नजर आने लगते हैं जिसे उन्होंने कभी देखा नहीं है। यह सच्चाई है कि इस हालात से वे लड़ नहीं सकते। ऐसे हालातो, अतिक्रमणकारियों से लड़ने के लिए उनके पास समय ही नहीं है। धीरे-धीरे गांव की सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन आने लगता है।वे भी इन परिवर्तनों को आत्मसात करने में जुट जाते हैं।

 यह तो सच्चाई है कि उनके पलायन कर जाने से चुनाव तो नहीं रुकने वाला है। राजनीतिक दलों को इनके पलायन पर ज्यादा चिंता शायद ही कभी होती होगी। वास्तव में पलायन के बाद वे सब वोट करने के लिए यहां रह तो नहीं जाते हैं।

छत्तीसगढ़ राज्य से हर साल महासमुंद बलौदा बाजार, लोरमी पंडरिया, जांजगीर-चांपा, कवर्धा, धमतरी, दुर्ग राजनांदगांव बिलासपुर के ग्रामीण क्षेत्र से बड़ी संख्या में पलायन होता है। बारिश के सीजन के बाद इन इलाकों के छोटे किसान पलायन करने लगते हैं। इन किसानों को ना इससे कोई मतलब है कि सरकार कितने क्विंटल धान खरीदती है ना ही इससे भी कोई मतलब है कि कितने रुपए बोनस दिए जा रहे हैं। ये,दो-तीन एकड़ वाले और उनमें भी ज्यादातर असंचित भूमि वाले किसान हैं जोकि खेतों में कृषि कार्य के लिए कर्ज भी नहीं लेते हैं। ऐसे में सरकार के द्वारा कितनी कर्ज माफी की गई इससे भी इन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता है। अभी खेतों में धान की कटाई का काम शुरू नहीं हुआ है और उससे पहले इन किसानों का पलायन शुरू हो गया है। इससे भी आप यह समझ सकते हैं कि सरकार,किस दर पर और कितना धान,समर्थन मूल्य पर खरीदती है इससे भी नहीं कोई लेना-देना नहीं है।यह अपना,सब कुछ छोड़कर यहां जा रहे हैं। अपनी मेहनत, अपनी किस्मत के भरोसे कमाने जा रहे हैं। इनके साथ विडंबना यही है कि ये मतदान भी नहीं करने वाले हैं इसलिए इनकी कोई अधिक फिक्र करने वाला ही नहीं है। शत प्रतिशत मतदान चाहने वाले तंत्र को भी यह सोचना होगा कि मतदाताओं का, जब इतनी बड़ी संख्या में पलायन हो जा रहा है तो शत प्रतिशत मतदान कैसे हो सकेगा। लेकिन हो सकता है कि इतने भारी पलायन के बावजूद मतदान का प्रतिशत बढ़ा हुआ देखने को मिले,जो सबके लिए चिंता की बात भी हो सकती है, और सोचा जा सकता है कि कहीं ना कहीं कुछ गड़बड़ जरूर हो रहा है। 


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