Page Nav

HIDE

Grid

GRID_STYLE

Pages

Classic Header

{fbt_classic_header}

Top Ad

ब्रेकिंग :

latest

Breaking News

Automatic Slideshow


समाज के हित के लिए आलोचना का गरल पीने वाले पाते हैं शिवकृपा : संदीप अखिल

  रायपुर.   सदैव सब पर कृपा बरसाने वाले महादेव ने सभी के हित को देखते हुए हलाहल को ग्रहण किया था. दूसरे के कल्याण और रक्षा के लिए भोलेनाथ यह...

Also Read

 रायपुर. सदैव सब पर कृपा बरसाने वाले महादेव ने सभी के हित को देखते हुए हलाहल को ग्रहण किया था. दूसरे के कल्याण और रक्षा के लिए भोलेनाथ यह सब किया पर क्या हम अपने जीवन में इन बातों का ध्यान रखते हैं ?देश और संस्कृति की रक्षा के लिए क्या हमारी भावना ऐसी रहती है ?आज हम समुद्र मंथन की कथा के माध्यम से भगवान आशुतोष की चर्चा करेंगे.



महाशिवरात्रि कई कारणों से महत्व रखती है. एक मान्यता यह है कि इस दिन भगवान शंकर और माता पार्वती का विवाह हुआ था और यह त्योहार उनके दिव्य मिलन का जश्न मनाने के लिए हर साल मनाया जाता है. साथ ही यह शिव और शक्ति के मिलन का भी प्रतीक है.

समुद्र मंथन मंद्राचल की मथानी एवं वासुकि के नेति से प्रारंभ हुआ . मुख भाग एवं पूछवाले भाग के नाम से कुछ विवाद हुआ पर समाधान हो गया. मंथन प्रारंभ हुआ. मंथन के लिए सशक्त विचार भूमि होनी चाहिए, मंथन का आधार होना चाहिए. मंदराचल आधार के आभाव मे धंसने लगा. श्रीमद भागवत मे कच्छप अवतार की कथा है. कछुए का पृष्ट भाग बहुत सख्त होता है. इसे थोड़ा गंभीरता से समझे. कछुए के अवतार के श्री हरि के पीठ पर अमृत निकालने के मंथन का महाभियान प्रारंभ हुआ.


मंदराचल के धसक जाने का आध्यात्मिक अर्थ यह हुआ संसार मे अमृत प्राप्त करने के लिए मन का मंथन होना चहिए .मनोगत पवित्र भाव रस्सी से मन का मंथन करोगे तो जीवन का सत्य जो आनंद है सहज सुख राशि है वह अनावृत होगा, पर मन के मंथन का आधार सही होना चाहिए. भारत के समृद्ध आध्यात्म की भूमि मे यदि मान्यताओ के अनुरूप मन का मंथन होगा जीवन का अमृत प्रगट होकर आपके आदेश की प्रतीक्षा करेगा। समुद्र मंथन में अमृत के पहले हलाहल निकला, विष निकला उसकी प्रचण्ड ज्वाला से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया , हाहाकार मच गया. हरीतिमा सूख गई , सुखद संभावनाएं की कोपले झुलस कर गिर गई .पक्षियों ने मधुर कलरव के आनंद को प्रकृति ने खो दिया. ऐसे वह हलाहल विष निकला. किसी भी बड़े अनुष्ठान, सावर्जनिक कार्य, बड़े अभियान में यश के कीर्ति घट के निकलने के पूर्व निंदा या आलोचना का विषैला कडुवा पक्ष पहले प्रगट होता है. यह एक प्रकृति जन्य क्रिया है. यह अमृत निकलने पूर्व हलाहल निकलने का ही प्रच्छन्न रुप है, जो आज भी है. तो समुद्र मंथन में अमृत के पहले ज़हर निकला, विष चाहे समुद्र मंथन के काल का हो या आज की आलोचना का ज़हर उसे सत्य ही पचा सकता है, ग्रहण कर सकता है. देवताओं के आग्रह पर शिव ने उस गरल का पान किया. शिव ने उस गरल को कंठ मे धारण किया,नीलकंठ हो गये. ब्रम्हा सृष्टि की रचना करने वाले, विष्णु पालन करने वाले, शिव संहार करने वाले, परन्तु उन्होने संसार के कल्याण के लिए विषपान किया ,”जरत सकल सुर वृंद, विषम गरल जेहि पान किय, तेहि ना भजस मन मंद को कृपालु शंकर सरिस ” ठीक उसी तरह आलोचना के गरल को ना जीभ मे रखना चाहिए, ना उदर में , उसे कंठ में रखना चाहिए. आलोचना को गले मे रखकर चित्त की भूमि में यदि शीतल आध्यात्म की सुर सरि गंगा का अविरल रस प्रवाह होगा, हमारी वैदिक मान्यताओ का अनुशासन होगा, तो वह आलोचना का विष स्वयं निष्प्रभावी हो जायेगा. आज बिखरती संवेदनाओं, संक्रमित जीवन पद्धति, बौने होते जीवन मूल्य, दूर निरीह असहाय खड़े हमारे उच्च आदर्श ऐसे शिव के प्रागट्य के प्रतीक्षा कर रहे है।॥ “गरल पान यदि कर सको तो तुम शिव शंकर बन सकते हो” राज्य सुख को तुम त्याग सको तो रामचंद्र बन सकते हो” अवधारणाओं एवं जीवन मूल्यों को स्थापित करने के लिए आलोचना का विष पान करने का सामर्थ्य रखने वाले शिव कृपा के अधिकारी हैं।