पॉवर कंपनी स्थापना रजत जयंती विशेष : बिजली है तो यह आधुनिक जीवन है. जल और वायु के बाद विद्युत मानों जीवन की अनिवार्यता हो गई है. लेकिन क्...
पॉवर कंपनी स्थापना रजत जयंती विशेष : बिजली है तो यह आधुनिक जीवन है. जल और वायु के बाद विद्युत मानों जीवन की अनिवार्यता हो गई है. लेकिन क्या आज की पीढ़ी इस बात को स्वीकार करेगी कि भारत में सिर्फ 150 वर्ष पहले यह विद्युत ऊर्जा शब्दकोष का हिस्सा भी नहीं था और छत्तीसगढ़ के परिप्रेक्ष्य में यह सिर्फ एक शताब्दी का मामला है. स्वतंत्रता के पश्चात देश को प्रगति के पथ पर ले जाने के लिए विद्युत ऊर्जा के महत्व को समझा गया और इसे गति प्रदान करने के लिए भारतीय विद्युत आपूर्ति अधिनियम 1948 लागू किया गया. उस दौर में छत्तीसगढ़, सेन्ट्र्ल प्राविंस तथा बरार प्रांत का हिस्सा था. छत्तीसगढ़ समेत पूरे प्रांत की राजधानी नागपुर थी जहां पहली बार 1905 में बिजली के बल्ब की रोशनी को लोगों ने देखा. लेकिन छत्तीसगढ़ को बिजली के लिए लगभग एक दशक का और इंतजार करना पड़ा.
पहली बार आई बिजली
छत्तीसगढ़ में पहली बार बिजली रायपुर और बिलासपुर में नहीं बल्कि अंबिकापुर में आई. यहाँ आज से एक शताब्दी पहले 1915 में लोगों ने बिजली से नगर को रोशन होते देखा. सारंगढ़ में 1924, छुईखदान में 1926, रायपुर और राजनांदगांव में 1928 , जगदलपुर और बैकुंठपुर में 1929, खैरागढ़ में 1930, रायगढ़ में 1931, बिलासपुर में अक्टूबर 1934 और जशपुर में 1941 में बिजली आपूर्ति के प्रमाण हैं. इन्हीं दशकों में बीजापुर, कांकेर समेत कई अन्य स्थानों पर छोटे पॉवर जनरेटरों के जरिए आवश्यक सेवाएं बहाल होती रहीं.
अंबिकापुर बना ध्वजवाहक
सरगुजा संभाग के साथ ही पूरे छत्तीसगढ़ में सबसे पहले बिजली का आगमन अंबिकापुर में हुआ. यहाँ 1915 में 30.5 किलोवॉट का बिजली संयंत्र स्थापित किया गया. 1953 में 173 किलोवॉट तक पहुंच गया था जबकि 1958 में कुल उपभोक्ता सिर्फ 262 ही थे. अंबिकापुर के अलावा बैकुंठपुर रियासत ने 1929 में अपना बिजली संयंत्र स्थापित किया जिसकी क्षमता केवल 15 किलोवॉट थी ,1954 में यह क्षमता 27 किलोवॉट तक पहुंच गई. इसके अतिरिक्त मनेन्द्रगढ़, चिरमिरी कालरी तथा रेलवे में भी बिजली का कुछ उत्पादन किया जाने लगा था. 1962 में कोरबा से 132 केव्ही लाईन जिसका चिरमिरी में उपकेन्द्र बनाया गया था के जरिए पूरे सरगुजा अंचल को बिजली मिलने लगी. 1958 तक बिजली का सिर्फ घरेलू उपयोग किया जा रहा था जबकि औद्योगिक उपयोग के लिए कुछ और वर्ष का इंतजार करना पड़ा.
सागौन के खंभे और पन बिजली
संयुक्त रायगढ़ जिले में पहले की रियासतों ने अपने-अपने स्तर पर सजग प्रयास किए. जशपुर, सारंगढ़, सरिया,सक्ति जैसी रियासतों में बड़ी सजगता थी. सारंगढ़ में सबसे पहले 1924 में बिजली से नगर की सड़कों को रोशन किया गया. यहां 37 किलोवॉट बिजली का उत्पादन होता था. इसके लिए बाकायदा सौगौन के ऊँचे खंभों पर बल्ब लटकाए जाते थे. रायगढ़ में नगर पालिका के नियंत्रण में 100 किलोवॉट का पॉवर स्टेशन था जो 1931 में शुरू हुआ जहाँ सिर्फ 273 उपभोक्ता थे जबकि जशपुर राजपरिवार ने 1941 में 37 किलोवॉट का पॉवर स्टेशन शुरू किया था उस स्थान को आज भी लोग पनचक्की के नाम से जानते हैं. खास बात यह है कि सारंगढ़ तथा जशपुर में बिजली उत्पादन डीजल जनरेटरों के साथ ही जलशक्ति से होता था. रायगढ़ क्षेत्र के सभी संयंत्रों को 1953 में मध्यप्रदेश विद्ययुत मंडल ने अधिग्रहित कर लिया. जो रायगढ़ आज ऊर्जा तथा इस्पात का शहर है वहाँ 1954 में पहली बार बिजली का औद्योगिक उपयोग शुरू हुआ था.
छुईखदान ने मारी बाजी
दुर्ग संभाग में सबसे पहले छुईखदान रियासत में बिजली से रोशनी की गई. 20 वीं शताब्दी के शुरूआती दशकों में राजनांदगाँव, छुईखदान और खैरागढ़ रियासत ने अपने यहाँ बिजली की आपूर्ति का काम प्रारंभ किया. वरिष्ठ पत्रकार विरेन्द्र बहादुर सिंह बताते हैं कि असल में राजनांदगाँव के राजा अपने यहाँ सबसे पहले बिजली लाने की तैयारी में थे जिस बारे उन्होंने अपने मित्र और छुईखदान के राजा को बताया था. इस काम में छुईखदान के राजा ने तत्काल काम शुरू दिया और अपने यहाँ 1926 में ही बिजली का उत्पादन कर दिया. राजनांदगाँव में 1928 तथा खैरागढ़ में 1930 में बिजली से बल्ब रोशन हुए. तीनों स्थानों पर डीजल आधारित संयंत्र स्थापित किए गए थे. छुईखदान में 45 किलोवॉट, खैरागढ़ में 80 तथा राजनांदगाँव में 220 किलोवॉट बिजली का उत्पादन किया जा रहा था. इन सबके बाद दुर्ग में 1951 में 75 किलोवॉट क्षमता की बिजली का उत्पादन शुरु हुआ. इस दौरान तक सभी चारों स्थानों के पॉवर स्टेशन मध्यप्रदेश विद्युत मंडल के अधीन हो गए थे.
बस्तर के साल के खंभे और बिजली
बस्तर क्षेत्र भी बिजली के मामलों बहुत पीछे नहीं था. बस्तर राजपरिवार के प्रयासों से पहली बार 1929 में बिजली आई. वरिष्ठ पत्रकार हेमंत कश्यप बताते हैं कि शुरूआत में पाँच डीजल जनरेटर बस्तर रियासत के लिए खरीदे गए थे जिसमें से चार इंद्रावती के किनारे पॉवर हाउस में स्थापित किया गया था तथा एक भोपालपट्टनम भेजा गया था. बस्तर की रानी प्रफुल्ल कुमारी देवी के प्रयासों से यह बिजली 21 फरवरी 1929 में नगर में पहुँची थी . राजमहल के साथ ही पांच हजार की आबादी वाले जगदलपुर में बिजली के तार, साल पेड़ के खंभों पर लटकाए जाते थे. 1965 में यह सभी जनरेटर बंद कर दिए गए. चालीस के दशक में कांकेर रियासत ने भी जनरेटर की सहायता से बिजली की व्यवस्था की थी. पर बस्तर को असल में रोशनी 1962 में उड़ीसा से आई 33 केव्ही लाईन की मदद से मिली. इसी बस्तर से देश का पहला हाई वोल्टेज डायरेक्ट करंट (एचव्हीडीसी) लाईन बारसूर से सिलेरू (196 किलोमीटर) तक 1989 में शुरू हुआ.
बिलासपुर में लाहौर की कंपनी और कानपुर की ईंटें
बिलासपुर में लाहौर इलेक्ट्रिक सप्लाई कंपनी को तीस वर्षों का लाइसेंस दिया गया पर एक वर्ष बाद इसे सेन्ट्रल इंडिया इलेक्ट्रीक सप्लाई कंपनी को सौंप दिया गया. लाहौर (पंजाब) की जिस कंपनी ने तोरवा क्षेत्र में पॉवर हाऊस बनाया उसके लिए ईंटें कानपुर से मंगाई गई थीं. इसके लिए निर्मित चिमनी की लंबाई 30 मीटर थी . पॉवर हाउस की उत्पादन क्षमता 1936 में 688 किलोवॉट थी जबकि 1950 के आते तक क्षमता 954 किलोवॉट हो गई थी तथा कुल उपभोक्ता संयुक्त बिलासपुर जिले में सिर्फ 11 सौ 31 थे. लाइसेंस समाप्ति के बाद 4 मई 1964 को मध्यप्रदेश विद्युत मंडल ने इसे अधिगृहित कर लिया. बिलासपुर के तिफरा स्थित 132 केव्ही का उपकेन्द्र प्रदेश का पहला उपकेन्द्र है जो 1956 में चार्ज किया गया था. पहली पंचवर्षीय योजना में जिले के सिर्फ तीन गाँव में बिजली पहुंची थी और आज है कि हर घर बिजली से रोशन हैं.
चालीस के दशक में रायपुर में भूमिगत बिजली केबल
रायपुर में कोलकाता की निजी कंपनी को विद्युत उत्पादन और वितरण का लाइसेंस दिया गया बाद में म्यूनिसिपल इलेक्ट्रीकल अंडरटेकिंग रायपुर ने इसे अपने हाथ में ले लिया. रायपुर के भाठागाँव तथा नयापारा में मौजूद पॉवर हाउस, बिजली का उत्पादन करते थे. इसमें सिर्फ 240 किलोवॉट बिजली बनती थी जिससे आवश्यक सेवाओं की बहाली की जाती थी. मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल ने 15 अगस्त 1951 को रायपुर के गुढियारी में चार हजार किलोवॉट के पहले पॉयलट पॉवर स्टेशन (शासकीय पॉवर हाऊस) का लोकार्पण किया था. 1958 में इसकी क्षमता बढ़कर आठ हजार किलोवॉट हो गई थी पर 1965 में इस बिजली घर को बंद कर दिया गया. 1940 के दशक में भी बिजली के अंडरग्रांउड केबल बिछाए गए थे. भाठागाँव से नयापारा तक 6.6 किलोवोल्ट की साढ़े चार मील की लाइन में से 2.56 मील भूमिगत थी. संयुक्त रायपुर जिले का मानिकचौरी पहला गाँव है जहाँ 1956 में लोगों ने बिजली के बल्बों से घरों को रोशन किया.
प्रदेश का “विद्युत तीर्थ” कोरबा
छत्तीसगढ़ में विद्युत उत्पादन का पहला बड़ा पड़ाव 25 जून 1957 को आया जब तत्कालीन मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू ने कोरबा में एक सौ मेगावॉट क्षमता के कोरबा पूर्व ताप विद्युत संयंत्र की स्थापना के लिए आधारशिला रखी. सच कहें तो इस संयंत्र की स्थापना, कोरबा को विद्युत तीर्थ के रूप में प्रतिस्थापित करने वाला कदम था. आज कोरबा में केन्द्र , राज्य और निजी क्षेत्र की कंपनियाँ हजारों मेगावॉट बिजली का उत्पादन कर रहीं हैं. आज कोरबा में एनटीपीसी, राज्य विद्युत कंपनी और निजी क्षेत्र की कंपनियां हजारों मेगावॉट बिजली का उत्पादन कर रहीं हैं. आज कोरबा की बिजली से प्रदेश ही नहीं देश के कई राज्य रोशन हो रहे हैं. कई उद्योग संचालित हो रहे हैं जिसमें हजारों लोगों को रोजगार मिल रहा है. देश के विकास को गति प्रदान कर रही है कोरबा की बिजली.
उत्पादक क्षेत्र के हिस्से अंधेरा
वर्ष 2000 के आते तक छत्तीसगढ़ में उत्पादन तथा पारेषण की क्षमता तो अच्छी थी . संयुक्त मध्यप्रदेश के दौर में शुरूआती 400 केव्ही लाईन 1983 में कोरबा से भिलाई तक बिछाई गई तथा प्रदेश का पहला 400 केव्ही का उपकेन्द्र खेदामारा (भिलाई ) में स्थापित हुआ. इन सबके बावजूद मध्यप्रदेश के दौर में वितरण की व्यवस्था में कभी प्राथमिकता नहीं मिली. अब की पीढ़ी उस उपेक्षा का अहसास नहीं कर सकती न ही उस अंधकार की पीड़ा को समझ सकती है. 1992 तक मध्यप्रदेश के 45 में से 17 जिले पूर्ण विद्युतीकृत हो चुके थे इसमें से छ्त्तीसगढ़ से एक भी जिला शामिल नहीं था. सिर्फ ढाई दशक बीते हैं और यादें बहुत धुंधली नहीं है जब शेष मध्यप्रदेश में रबी फसल को पानी देने के लिए संपूर्ण छ्त्तीसगढ़ की बिजली घंटों गुल रहा करती थी.
राज्य गठन से बदली तस्वीर
वर्ष 2000 में राज्य गठन के बाद गठित सरकारों ने अपनी – अपनी दलीय प्रतिबद्धताओं से परे ऊर्जा क्षेत्र में प्रदेश को अग्रणी बनाए रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. पहले मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद जोगी ने साहसिक निर्णय लेते हुए 15 दिनों के अंदर छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत मंडल का गठन (15 नवंबर 2000) कर दिया और उन्होंने राज्य के हितों से समझौता नहीं करने का स्पष्ट संदेश दिया. दिसंबर 2003 के बाद डॉ रमन सिंह का नेतृत्व, ऊर्जा क्षेत्र में प्रदेश के लिए मानो स्वर्णिम युग कहा जाएगा. पॉवर सरप्लस स्टेट का दर्जा हासिल करने से लेकर अधोसंरचना का अभूतपूर्व कार्य अपने कार्यकाल में पूर्ण कराया. शासकीय से लेकर निजी भागीदारी से प्रदेश की विद्युत उत्पादन क्षमता को 20 हजार मेगावॉट तक ले जाने में सफलता पाई. डॉ रमन सिंह के बाद भूपेश बघेल ने ऊर्जा क्षेत्र में चल रही सभी योजनाओं को प्राथमिकता के आधार पर आगे बढ़ाया.
संवारेंगे साय, बनायेंगे शक्ति समर्थ
अब प्रदेश और ऊर्जा विभाग की बागडोर एक संवेदनशील राजनेता विष्णुदेव साय के हाथों में है. विकसित होते छ्त्तीसगढ़ की जरूरतों को मुख्यमंत्री साय ने भलिभांति समझा है और दूरगामी निर्णयों की शुरूआत कार्यकाल के प्रारंभिक समय में ही कर दी है. आज प्रदेश का हर घर रोशन है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मंशा अनुरूप अब प्रदेश को नवीकरणीय ऊर्जा का भी हब बनाने का लक्ष्य मुख्यमंत्री ने निर्धारित कर दिया है. राज्य की पॉवर कंपनी ने भी इस दिशा में अपने कदम तेजी से बढ़ा दिए हैं. विद्युत ऊर्जा का यह सफर जो छत्तीसगढ़ में एक शताब्दी से कुछ अधिक समय पूर्व शुरू हुआ था वो निरंतर आगे बढ़ रहा है. छत्तीसगढ़ अब पूरे देश के लिए ऊर्जा प्रदेश और पॉवर हब बन चुका है. यह हमें गर्व की अनुभूति के साथ जिम्मेदारी का एहसास कराता है. आइए, हम अतीत के ‘अंधकार’ से किए गए संघर्षों, त्याग और दूरदर्शी निर्णयों से मिली सफलताओं की ‘किरणों‘ को पहचाने और एक ऐसे भविष्य का निर्माण करें जिसमें आने वाली पीढ़ी हमें किसी ‘ज्योति पुंज’ की तरह स्मरण कर सके.